Thursday, July 17, 2008

बंद आंखों के सपने

ढूँढ रही थी ये पलकें , पल कुछ इत्मीनान के

जब आंखों में बसे सपनों का ज़र्रा ज़र्रा

डूब रहा था मदहोशी में /

सूकून के दो पल बस यही थी चाह

इस बेकरार मन की , कि तभी आहट हुई

एक साया लहराया , लगा मानो खामोशी को मिल गई एक ज़ुबां

बेकरार मन को करार आ गया हो , और फिर लगा कि

बस मंज़िल मिल गई , कि तभी सपनों से भरी आंखों से

छलक गए सब आँसू और छलक गए उन बंद आंखों के सपने /

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