ढूँढ रही थी ये पलकें , पल कुछ इत्मीनान के
जब आंखों में बसे सपनों का ज़र्रा ज़र्रा
डूब रहा था मदहोशी में /
सूकून के दो पल बस यही थी चाह
इस बेकरार मन की , कि तभी आहट हुई
एक साया लहराया , लगा मानो खामोशी को मिल गई एक ज़ुबां
बेकरार मन को करार आ गया हो , और फिर लगा कि
बस मंज़िल मिल गई , कि तभी सपनों से भरी आंखों से
छलक गए सब आँसू और छलक गए उन बंद आंखों के सपने /
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