Monday, July 14, 2008

मूट्ठी से खिसकती रेत

ज़िंदगी मुट्ठी से खिसकती रेत सी ,

जहाँ मूक श्रोता बन , अपनी ख़ुद की ज़िंदगी को ,

समेटने में असमर्थ पाती मैं /

जहाँ ज़िंदगी के थपेड़ों में उलझती मैं,

और मेरे सपने /

लेकिन ये विराम नहीं ,

कल फिर सुबह होगी /

और सूरज की किरणों से धुंधली पड़ी लकीरें ,

उभरेंगी मेरे मानस पर ,

फिर समेटूंगी हर बिखरे तार को ,

जोड़ोंगी एक बार फिर ,

और सृजन करुँगी अपने उज्वल भविष्य का /

जिसमें मुस्कराएगा हर स्वप्न मेरा ,

और इबादत गुनगुनाएगा हर गीत मेरा /

मुट्ठी से खिसकती रेत से फिर ,

एक घरोंदा बनाऊँगी मैं /

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