ज़िंदगी मुट्ठी से खिसकती रेत सी ,
जहाँ मूक श्रोता बन , अपनी ख़ुद की ज़िंदगी को ,
समेटने में असमर्थ पाती मैं /
जहाँ ज़िंदगी के थपेड़ों में उलझती मैं,
और मेरे सपने /
लेकिन ये विराम नहीं ,
कल फिर सुबह होगी /
और सूरज की किरणों से धुंधली पड़ी लकीरें ,
उभरेंगी मेरे मानस पर ,
फिर समेटूंगी हर बिखरे तार को ,
जोड़ोंगी एक बार फिर ,
और सृजन करुँगी अपने उज्वल भविष्य का /
जिसमें मुस्कराएगा हर स्वप्न मेरा ,
और इबादत गुनगुनाएगा हर गीत मेरा /
मुट्ठी से खिसकती रेत से फिर ,
एक घरोंदा बनाऊँगी मैं /
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